गुरुवार, 7 अगस्त 2014

‘इतर समाज’ को भी विचार करना होगा अपने भविष्य के बारे में



एक गम्‍भीर और विचारणीय विषय को आपके समक्ष रख रहा हूँ- ‘इतर समाज’
      आज तक समाज के गम्‍भीर विचारकों द्वारा इस पर चिन्‍तन, मनन और मन्‍थन किया जाता रहा है। लिखने की हिम्‍मत विरलों ने ही की होगी या लिखते-लिखते लेखनी रुक‍ गई होगी। टूटने के कगार पर पहुँच चुके ‘दाक्षिणात्‍य वैल्‍लनाडु ब्राह्मण समाज’ के लिए उन्‍हें ‘स्‍वांत: सुखाय’ की नीति पर चल कर अपने उत्‍तरदायित्‍व के प्रति चैतन्‍य होने की आवश्‍यकता ही अनुभव नहीं हो रही होगी। परिणामस्‍वरूप उनके मौन ने समाज को विघटन के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया है। परिणाम आपके सामने हैं। एक ‘इतर समाज’ खड़ा हो कर उनके मौन पर हँस रहा है औऱ वे गम्‍भीर विचारक, मूक अपने उत्‍तरदायित्‍व से विमुख हो रहे हैं।
      विगत के उत्‍कर्ष को देख कर जीना भयावह हो सकता है। काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन अवश्‍य होने चाहिए, किन्‍तु ‘इतर समाज’ के वर्तमान स्‍वरूप का तेजी से होता फैलाव समझ से परे है। यह कैंसर की तरह पुरातन समाज को जकड़ता जा रहा है। सामाजिक परिवर्तन समाज से इतर, उच्‍चता की अभिलाषा को परिपोषित करते हुए और समाज के समक्ष एकाता बनाये रखते हुए, उन्‍हीं प्रतिमानों को सहेजने में यदि सक्षम होते हैं, तो समाज उन्‍हें अवश्‍य स्‍वीकार करता है, अन्‍यथा वह उनका पराभव है, विजय नहीं, श्रेष्‍ठता नहीं। मुंबई का फि‍ल्‍म जगत् और संगीत का अपरिमित क्षेत्र, ऐसे उदाहरण हैं (हमारे समाज के कतिपय लोग भी इससे जुड़े हुए हैं, इसलिए केवल इन्‍हीं दो क्षेत्रों का उल्‍लेख कर रहा हूँ) जहाँ ऐसे प्रतिमान स्‍थापित हैं, जो इतर समाज के रूप में सक्षम है। यह उनके अपने विलक्षण प्रतिभा के दोहन के लिए अवसर जुटाने के लिए किये गये प्रयास हैं, जिसमें, जात-पाँत का कोई भेदभाव या प्रभाव नहीं है, फि‍र भी वे अपने समाज के परिपोषक हैं। समाज ने इन्‍हें स्‍वीकार कर लिया है, किन्‍तु हमारा समाज अभी इसके लिए तत्‍पर नहीं और योग्‍य भी नहीं। कतिपय हमारे ‘इतर समाज’ के उदाहरणों को भी धरातल से सोचें, तो वह समाज से कटे हुए हैं, न वे ‘इतर समाज’ के संवाहक है और न ही परिपोषक, वे अपने परिवार तक ही सीमित हैं।
      जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, हमारे ‘इतर समाज’ की, जो पुरातन समाज में से एक नई शाखा को विकसित कर चुकी है, परिपोषित होती हुई शीघ्र ही एक वंशवृक्ष का रूप धारण कर रही है। हमारे समाज के मूल वंशवृक्ष की जड़ें इससे कमजोर हुई हैं। सामाजिक प्रदूषण से वह अभी तो सम्‍हली हुई है, क्‍योंकि दशकुलवृक्ष की भाँति वह दृढ़ सांस्‍कृतिक मूल्‍यों से पोषित है और एक समृद्ध समाज उसका पोषण कर रहा है। यह प्रकृति का नियम है। अगर इस सत्‍य पर विचारकों को व्‍यंग्‍य करने का अवसर मिल रहा है, तो वह अवश्‍य करें, किन्‍तु किसी कोने में टीस तो उठ ही रही होगी, चाहे वे इस परिणाम को सुखद मान लें या दुखद, पर इतना तो वे भी मानते होंगे कि अन्‍य समाजों की तुलना में हम कहीं भी नहीं ठहरते, य‍हाँ तक कि धर्म, साहित्‍य व प्रशासन के क्षेत्र में भी बहुत अधिक सफल नहीं माना जा सकता।
      मेरा आग्रह है, ‘इतर समाज’ को अपने नीति, नियम, परिपाटी बनानी होंगी। यदि वे अपने समाज को पुराने सड़े गले समाज (उनकी दृष्टि में) से जुड़ा हुआ मानते हैं, तो वे यह दुस्‍साहस कर रहे हैं। वे पुराने समाज (अपने पैतृक कुटुम्‍ब) में तो घुन लगा ही रहे हैं, अपनी पीढ़ी को भी सही दिशा नहीं दे रहे हैं, जिनके परिणाम सुखद नहीं होंगे। यही उन्‍हें समझना होगा। साहस है, तो नई दुनिया बनायें!!!! उन्‍हें ढूँढ़ना होगा वह पूर्व पुरुष, पह प्रथम परिवार जिसने इस इतर समाज की नींव डाली, उसको जन्‍म दिया, तभी उनका वंशवृक्ष सही मायनों में फलेगा फूलेगा। इस कार्य में यदि विलम्‍ब हुआ तो प्रकृति तो अपना संतुलन बनायेगी है, वे समाज से कहीं अलग-थलग नहीं कर दिये जायें, मुझे डर है, तब वे अपनी भावी पीढ़ी को उनके यक्ष प्रश्‍नों का जवाब नहीं दे पायेंगे। आज और अभी तो वे सक्षम हैं, किन्‍तु कल वे पथभ्रष्‍ट कहलायेंगे।
एक कहानी है- 'एक गाँव के रेल्‍वे स्‍टेशन पर एक रेल आकर रुकी। उसमें से एक मुसाफि‍र उतरा। प्‍लेटफार्म खाली था। एक भी व्‍यक्त्‍िा उसमें नहीं चढ़ा। रेल चली गई। स्‍टेशन से बाहर आते ही मुसाफि‍र को एक व्‍यक्ति दिखाई दिया। साधारण कद काठी का, किन्‍तु बदसूरत। उसके चेहरे को देख कर मुसाफि‍र के चेहरे के भाव बदले। वह उसके पास आकर बोला- ‘यहाँ सभी मेरे जैसे बदसूरत लोग रहते हैं, इसलिए कोई तुम्‍हें पसन्‍द करे या तुम उसे पसंद करो यह जरूरी नहीं। इसलिए यहाँ सबके पास पिस्‍तौल हैं। यहाँ न कोई पुलिस व्‍यवस्‍था है और न ही न्‍यायालय। इसलिए कोई कभी भी तुम्‍हें मार सकता है और तुम किसी को कभी भी मार सकते हो। यहाँ अभी तक अपराध नहीं हुए है। ध्‍यान रखना, हर आँख एक दूसरे को देखती रहती हैं, इसलिए यहाँ जब तक रहना है, तो यह बात ध्‍यान में रखनी होगी। तुम पहली बार आए हो। मुझे देख कर जो तुम्‍हारे चेहरे की प्रतिक्रिया थी, मैं तुम्‍हें मार सकता था, पर तुम्‍हें नहीं मार रहा हूँ, क्‍योंकि तुम निहत्‍थे हो। लो, तुम्‍हें यह पिस्‍तौल दे रहा हूँ। तुम आ गये हो, पर जा नहीं पाओगे। तुम कितने दिन जी पाओगे, यह निर्णय तुम्‍हें करना है।'
      इस कहानी का वर्णन करने का उद्देश्‍य यही था, कि ‘इतर समाज’ को अपने ध्‍येय निश्चित करने होंगे। बैसाखी पर चलने से उनके विकास की गति में हमेशा रोड़े आएँगे। सदैव अपराध बोध से ग्रसित रहेंगे। समाज के एक वर्ग में उठ-बैठ में हिचकिचायेंगे। उन्‍हें अपने जीवन रथ के पहियों में अधुनातन तेल पिलाना होगा। ऐसा करने वे कोई गौरवान्वित कार्य नहीं करेंगे, बस अपने समाज को एक नई दिशा देंगे, जो भविष्‍य के लिए सुखद संदेश देगी। एक लक्ष्‍मण रेखा स्‍थापित होगी। समाजों के बीच नया सौहार्दपूर्ण वातावरण बनेगा। नये वंशवृक्ष की उत्‍पत्ति होगी। वह फलेगा फूलेगा। अनेकों विद्वान स्‍थापित होंगे। सोच के लिए एक दिशा मिलेगी। एक ध्‍येय होगा। जो विद्वान हैं, उन्‍हें पुरोधा बनने के अवसर मिलेंगे। नई शाखा, नये प्रवर, नये गोत्र का परिष्‍करण हो कर नया नामकरण होगा, नई परिपाटी बनेगी। नये परिधान होंगे। नये संस्‍कार बनेंगे। नये विधि-विधान होंगे। अपने ही समाज से निकली एक शाखा के रूप में दूसरे समाज उनसे जुड़ना चाहेंगे, तो गर्व से जुड़ेंगे। परस्‍पर सद्भाव का वातावरण विकसित होगा। तब यह गलत नहीं होगा। पुरातन काल से होता आ रहा है। इतर समाज के लोग जुड़े (रामानुज, गौरांग सम्‍प्रदाय) हैं। इसलिए वर्तमान में तेजी से बढ़ रहे ‘इतर समाज’ को भी विचार करना होगा अपने भविष्‍य के बारे में।
      आज जो हो रहा है, वह गलत हो रहा है। आज दोनों समाज के बीच कोई टीस, कोई कसक पनप रही है। एक खाई बढ़ती जा रही है, जो विकराल रूप न ले ले। अनुचित तरीके से छिपते-छिपाते रिश्‍ते हो रहे हैं। वैदिक संस्‍कारों का मखौल उड़ाया जा रहा है। विवाह सम्‍बंध विच्‍छेद हो रहे है।। अन्‍य ‘इतर समाजों’ की लौकिक परम्‍परायें आत्‍मसात् कर रहे हैं। खान-पान बदल रहा है। सब मौन हैं, तमाशा देख रहे हैं। ऐसा नहीं कि मूल समाज में क्रांतिकारी वर्ग नहीं है। यथार्थ तो यह है कि पुरातन समाज में ही क्रांतिकारी पक्ष सबल और समर्थ है। आक्रोश दोनों पक्षों में प्रबलता पर है। पर शेष की दशा-------सत्‍य तो यह है, देखी नहीं जा रही। आज भले ही गोकुलस्‍थ-मथुरास्‍थ में अनुशासन की सीमा खत्‍म हो गई है, किन्‍तु ठेठ परम्‍पराओं से जुड़े सभी पुरातन परिवार आज छिन्‍न-भिन्‍न या प्रदूषित हैं। वे सामाजिक पोषण के अभाव में टूट रहे हैं या समस्‍याग्रस्‍त हैं। उन्‍हें सम्‍हालने के लिए समाज के पास कोई नीति, कोई सम्‍पदा या कोई कोष नहीं है। ऐसे में अपने ही ‘इतर समाज’ से संक्रमित वे जीवन के उस दो राह पर खड़े हैं, जहाँ उत्‍थान की सम्‍भावनायें कम, पतन की अधिक हैं। ऐसे में वर्तमान ‘इतर समाज’ का दायित्‍व है कि एक स्‍वस्‍थ परम्‍परा, स्‍वस्‍थ परिपाटी का श्रीगणेश करें और एक नई लहर लायें।
      आज ‘इतर समाज’ मौन धीरे-धीरे पुरातन समाज पर जिस गति से छाता जा रहा है, यह गम्‍भीर विषय है। यह मौन आने वाले तूफान का संकेत है। यह संक्रमण रुकना चाहिए। दोनों समाजों के बाहुबलियों को स्‍वस्‍थ विचारविमर्श कर इस पर एक राय, एक मत, एक मार्ग निकालने के लिए सौहार्दपूर्ण वातावरण विकसित करने के लिए साझा प्रयास करने होंगे और ‘तैलंगकुलम्’ जैसे माध्‍यम को इसमें पहल करनी होगी। किमधिकम्।

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